The evening
It comes with a different dawn,
A different lull
A queer storm.
It comes with remembrance of promises-
Non existing ones,
Which seem false anyways?
It comes with silences-
As old as they are new.
The evening,
It comes with tears
It comes hard,
It comes once again.
It justifies neither what is
Nor what was,
It comes with remembrances.
The evening
It comes
It mocks me
For things which seem to have stayed and gone
It looks at me and makes me wonder on.
It fades
Into relentless nights of dimmed afternoons.
It comes
It mocks me for things that seem to have stayed and gone.
Saturday, April 28, 2007
Monday, April 23, 2007
क्या करेंगे उस मंज़र का जो दबे पांव हमें बुलाएगी,
क्या करेंगे ऐसी राह चलकर जिस्पे साथी ना रह पाएंगे?
हम कौनसा आस्मा कि चाह में जीं रहे हैं- ए ज़िन्दगी,
तू बस हमें इन चंद लम्हों में ही जीने दे-
हम इस धरती से जुडे हर गुज़रे पल में ही अपना आस्मा सजायेंगे.
हम कौनसा फ़िज़ाओं कि ताक़ में जीं रहे थे
जो तुमने हमें तूफानों से ला मिलाया?
हमतो इनही बिजलियों से दोस्ती करने लग पडे थे
जब तुमने एक फूल हमारे दामन में ला सजाया.
फूलों को भी तो हम झिझक कर ही पकड़ते थे-
कि कहीँ हम उनके और वो हमारे मुरझाने का कारन ना बने.
पर तुम्ही तो थी जिस्ने हमें उनसे दोस्ती करना सिखाया.
इसी फूल को सींचने की अब कुछ ऐसी आदत सी हो गई है हमें
कि अब ना तुम्हें उनसे मिलाने
और ना उन्हें मुरझाने का
कसूरवार ठेरा सक्तें हैं हम.
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